लोकसभा और विधानसभा चुनावों को एक साथ कराए जाने की कवायद तेज हो गई है। 'एक देश एक चुनाव' को लेकर लॉ कमीशन अगले 15 दिन में सरकार को रिपोर्ट सौंपेगा। बता दे लॉ कमीशन के मौजूदा चेयरमैन बीएस चौहान अगस्त के आखिर में रिटायर हो रहे हैं। ऐसे में संभावना है कि 'एक देश एक चुनाव' को लेकर उसके पहले ही रिपोर्ट सौंप दिया जाए. अनुमान यह भी हैं कि लॉ कमीशन 2019 और 2024 में दो चरणों में चुनाव कराए जाने का सुझाव दे सकता है।
बता दे लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ कराने के लिए लॉ कमीशन ने एक ड्राफ्ट तैयार किया है। इसके तहत दो चरणों में चुनाव कराने का सुझाव था। पहले चरण में उन विधानसभाओं को शामिल किया गया, जिनका कार्यकाल 2021 में पूरा हो रहा है। इन राज्यों में आंध्र प्रदेश, असम, बिहार महाराष्ट्र शामिल हैं. वहीं, दूसरे और आखिरी चरण में उत्तर प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, दिल्ली और पंजाब हैं।
लॉ कमीशन ने 'एक देश एक चुनाव' के ड्राफ्ट पर चर्चा के लिए इसी साल जुलाई में राजनीतिक पार्टियों की बैठक बुलाई थी। एनडीए के दो सहयोगी समेत 5 दलों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया था, जबकि 9 दल इसके विरोध में थे।
लॉ कमीशन के प्रस्ताव का समर्थन करने वालों में जेडीयू और अकाली दल (एनडीए), एआईएडीएमके, समाजवादी पार्टी और तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) शामिल थे। वहीं, तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, तेलुगू देशम पार्टी, डीएमके, जेडीएस, एआईएफबी, सीपीएम, एआईडीयूएफ, गोवा फॉरवर्ड पार्टी ने इसका विरोध किया था। हालांकि, कांग्रेस ने इस पर कोई राय नहीं रखी थी।
एक देश, एक चुनाव’ आवश्यक क्यों?
आदर्श आचार संहिता का मुद्दा:
विदित हो कि चुनाव की तारीखें तय होते ही लागू आदर्श आचार संहिता (model code of conduct) के कारण सरकारें नए विकास कार्यक्रमों की दिशा में आगे नहीं बढ़ पाती हैं।
बार-बार होने वाले चुनावों के कारण राजनीतिक दलों द्वारा एक के बाद एक लोक-लुभावन वादे किये जाते हैं, जिससे अस्थिरता तो बढ़ती ही है, साथ में देश का आर्थिक विकास भी प्रभावित होता है।
- चुनाव:
व्यापक शासन संरचना और कई स्तरों पर सरकार की उपस्थिति के कारण देश में लगभग प्रत्येक वर्ष चुनाव कराए जाते हैं।
देश में एक या एक से अधिक राज्यों में होने वाले चुनावों में यदि स्थानीय निकायों के चुनावों को भी शामिल कर दिया जाए तो ऐसा कोई भी साल नहीं होगा जिसमें कोई चुनाव न हुआ हो।
- सुरक्षा का मुद्दा:
बड़ी संख्या में सुरक्षाबलों को भी चुनाव कार्य में लगाना पड़ता है, जबकि देश की सीमाएँ संवेदनशील बनी हुई हैं और आतंकवाद का खतरा बढ़ गया है।
चुनावों पर होने वाले भारी व्यय में कमी:
विदित हो कि वर्ष 2009 में लोकसभा चुनाव पर 1,100 करोड़ रुपए खर्च हुए और वर्ष 2014 में यह खर्च बढ़कर 4,000 करोड़ रुपए हो गया।
पूरे पाँच साल में एक बार चुनाव के आयोजन से सरकारी खज़ाने पर आरोपित बेवज़ह का दबाव कम होगा।
कर्मचारियों के प्राथमिक दायित्वों का निर्वहन:
बार-बार चुनाव कराने से शिक्षा क्षेत्र के साथ-साथ अन्य सार्वजनिक क्षेत्रों के काम-काज प्रभावित होते हैं।
ऐसा इसलिये क्योंकि बड़ी संख्या में शिक्षकों सहित एक करोड़ से अधिक सरकारी कर्मचारी चुनाव प्रक्रिया में शामिल होते हैं।
सीमित आचार संहिता के कारण सक्षम प्रशासन:
चुनावों के दौरान आदर्श आचार संहिता का पालन आवश्यक है, क्योंकि अपने कार्यकाल के अधिकांश दिनों में नाकाम रहने वाली सरकारें अंत समय में कुछ घोषणाएँ कर फिर से सत्ता में काबिज़ हो सकती हैं। लेकिन प्रत्येक वर्ष चुनाव के कारण आदर्श आचार संहिता की अवधि में वृद्धि होने से वैसी परियोजनाएँ भी आरंभ नहीं की जा सकती, जो कि आवश्यक हैं।
लोगों के सार्वजनिक जीवन में कम होंगे व्यवधान:
एक के बाद एक होने वाले चुनावों से आवश्यक सेवाओं की निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
लगातार जारी चुनावी रैलियों के कारण यातायात से संबंधित समस्याएँ पैदा होती हैं साथ ही साथ मानव संसाधन की उत्पादकता में भी कमी आती है।